बुन्देलखण्ड में असहाय महिलाओं और मजलूमों के लिए सहारा बनने वाले गुलाबी गैंग और उसकी मुखिया संपत पाल को ‘शाबाश’ कहने का मन हो रहा है.सम्पतपाल और उनके गुलाबी गैंग को नक्सलवादियों कि पंक्ति में खड़ा करने वालों कि bउधि पर तरस भी आता है.लगता है भ्रष्ट प्रशाशन को अपनी दुकान बंद होने का खतरा सताने लगा है.
उस राज्य का हिस्सा है,जिसकी मुखिया एक ऐसी महिला है,जो कमजोरों कि मसीहा होने का दम भरती है.और मजलूमों को न्याय दिलाने वाले हाथों को रोकने का प्रयास करने वाला अधिकारी भी उन्ही के राज्य का एक वरिष्ठ अधिकारी है.क्या नारों और जमीनी हकीकत में कोई tआळ मेल नहीं है?क्या सामजिक न्याय का नारा केवल मायाजाल है?
न्याय मांगने को उठे हाँथ आक्रामक मुठियाँ भी बन सकते हैं.गुलाबी गैंग औए उसकी मुखिया को समर्थन मिलना ही चाहिये. शासन और प्रशाशन अपनी मानसिकता को बदले,यही समय का ताकाजा है.
उठे हाँथ घूँसा न बन जाए
नियत अपनी बदल डालो.
Monday, May 19, 2008
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