सरकारी विभागों कि कार्य गति और कारगुजारियाँ किसी से छिपी नहीं हैं। कुर्सी पर बैठा बाबू हो या अधिकारी अपने विशेष हित के बगैर छुट्टी मनाता ही नजर आता है। कुर्सी पर पहुँचते ही पानी और फिर चाय, फिर थोडी राजनीति और थोड़े ठहाके ...फिर शाम कि चाय और फिर छुट्टी.बीच में यदि कुछ लोगों पर मेहरबानियाँ हुईं भी,टू उसकी पूरी कीमत जेब में।
इस सबके बावजूद हर रोज एक नए सरकार घोषित अवकाश से रूबरू होना हतप्रद करता है। कुछ दिन पहले माननीय काशीराम जयंती का अवकाश और अब 'वोट इंजीनियरिंग' के अंतर्गत भगवान् परशुराम जयंती का अवकाश भी उत्तर प्रदेश सरकार कि नई पहल है।महापुरुषों कि जयंती मनाने के लिए क्या हम कुछ नया नहींसोच सकते? उस विशेसदिन हम सच्चाई के साथ महापुरुष के कुछ गुरों को स्वयं में धारण करने का प्रयास नहीं कर सकते? सरकारी कर्मचारियों कि कार्य संस्कृति को बदलने के प्रयास करना भी महापुरुषों कि जयंती मनाने का एक तरीका हो सकता है। हर महापुरुष कि जयंती पर सरकारी अवकाश घोषित कर आराम तलबी को बढावा देने कि संस्कृति बदलने कि आवश्यकता है।
बदलने को देश ,कुछ हमें भी बदलना चाहिये।
Monday, May 19, 2008
शाबाश! गुलाबी गैंग
बुन्देलखण्ड में असहाय महिलाओं और मजलूमों के लिए सहारा बनने वाले गुलाबी गैंग और उसकी मुखिया संपत पाल को ‘शाबाश’ कहने का मन हो रहा है.सम्पतपाल और उनके गुलाबी गैंग को नक्सलवादियों कि पंक्ति में खड़ा करने वालों कि bउधि पर तरस भी आता है.लगता है भ्रष्ट प्रशाशन को अपनी दुकान बंद होने का खतरा सताने लगा है.
उस राज्य का हिस्सा है,जिसकी मुखिया एक ऐसी महिला है,जो कमजोरों कि मसीहा होने का दम भरती है.और मजलूमों को न्याय दिलाने वाले हाथों को रोकने का प्रयास करने वाला अधिकारी भी उन्ही के राज्य का एक वरिष्ठ अधिकारी है.क्या नारों और जमीनी हकीकत में कोई tआळ मेल नहीं है?क्या सामजिक न्याय का नारा केवल मायाजाल है?
न्याय मांगने को उठे हाँथ आक्रामक मुठियाँ भी बन सकते हैं.गुलाबी गैंग औए उसकी मुखिया को समर्थन मिलना ही चाहिये. शासन और प्रशाशन अपनी मानसिकता को बदले,यही समय का ताकाजा है.
उठे हाँथ घूँसा न बन जाए
नियत अपनी बदल डालो.
उस राज्य का हिस्सा है,जिसकी मुखिया एक ऐसी महिला है,जो कमजोरों कि मसीहा होने का दम भरती है.और मजलूमों को न्याय दिलाने वाले हाथों को रोकने का प्रयास करने वाला अधिकारी भी उन्ही के राज्य का एक वरिष्ठ अधिकारी है.क्या नारों और जमीनी हकीकत में कोई tआळ मेल नहीं है?क्या सामजिक न्याय का नारा केवल मायाजाल है?
न्याय मांगने को उठे हाँथ आक्रामक मुठियाँ भी बन सकते हैं.गुलाबी गैंग औए उसकी मुखिया को समर्थन मिलना ही चाहिये. शासन और प्रशाशन अपनी मानसिकता को बदले,यही समय का ताकाजा है.
उठे हाँथ घूँसा न बन जाए
नियत अपनी बदल डालो.
Tuesday, May 6, 2008
शिरडी ! रोमांच का अनुभव
आज से पचीस वर्ष पूर्व १९८२ का जनवरी माह मैंने भी साई नाथ कि पवित्र भूमि शिरडी कि यात्रा कि थी. मेरे साथ थे 'मदुरा कि मीनाक्षी’ उपन्यास के लेखक शत्रुघ्न लाल शुक्ल.शिरडी कि पावन भूमि का वो स्पर्श मुझे आज भी रोमांचित करता है.
शिरडी में हमने एक रात बिताई.लालसा थी प्रातः होने वाले समाधि स्नान और अभिषेक में शामिल होने कि.सारी रात एक अजीब प्रसन्नता के अनुभव ने गहरी नींद को भी दूर ही रखा.बाबा का सानिध्य पाने के लिए,नित्य कर्मों से मुक्त हो समय पूर्व ही हम दोनों मूर्ति व समाधि स्थल पर जा पहुंचे.समय आया,द्वार खुले और हम कछ में थे.दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, और मैं साई नाथ के अलावा कुछ और नही देख पा रहा था,न महसूस कर पा रहा था.समाधि स्नान प्रारम्भ हुआ और मैंने भी बाबा कि समाधिस्नान कराने के आनंद से अपने आप को अभिभूत होते पाया.प्रतीत हो रहा था,कि सैन्नाथ का साचत सानिध्य मुझे अपुवा उर्जा और आशीर्वाद से सराबोर कर रहा है.मुझे बाबा कि मूर्ति का स्वयं पूजन-अर्चन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ,जो आज आतंकवादी गतिविधियों और बढ़ती भीड़ के कारण रोक दिया गया है.सच में आज भी उन पलों के इस्मरण मातृ से अभिभूत हो उठता हूँ.
आज बाबा कि भूमि शिरडी करोरों भक्तों के आकर्षण का केन्द्र है.भिखारी बने भक्त कुछ न कुछ मांगने साई नाथ के द्वार जा पहुँचते हैं.और पाते हैं अपने मॅन कि मुराद .महासमाधि लेने के पूर्व अपने व्याकुल भक्तों से कहा भी था-इस्थूल शरीर छोड़ने के बाद भी में सक्रिय रहूँगा.जिस किसी के चरण भी शिरडी कि पवित्र भूमि पर पड़ेंगे,उसके कष्ट दूर हो जायेंगे. ‘तुम मुझे देखो में तुम्हे देख रहा हूँ’.
शिरडी में हमने एक रात बिताई.लालसा थी प्रातः होने वाले समाधि स्नान और अभिषेक में शामिल होने कि.सारी रात एक अजीब प्रसन्नता के अनुभव ने गहरी नींद को भी दूर ही रखा.बाबा का सानिध्य पाने के लिए,नित्य कर्मों से मुक्त हो समय पूर्व ही हम दोनों मूर्ति व समाधि स्थल पर जा पहुंचे.समय आया,द्वार खुले और हम कछ में थे.दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, और मैं साई नाथ के अलावा कुछ और नही देख पा रहा था,न महसूस कर पा रहा था.समाधि स्नान प्रारम्भ हुआ और मैंने भी बाबा कि समाधिस्नान कराने के आनंद से अपने आप को अभिभूत होते पाया.प्रतीत हो रहा था,कि सैन्नाथ का साचत सानिध्य मुझे अपुवा उर्जा और आशीर्वाद से सराबोर कर रहा है.मुझे बाबा कि मूर्ति का स्वयं पूजन-अर्चन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ,जो आज आतंकवादी गतिविधियों और बढ़ती भीड़ के कारण रोक दिया गया है.सच में आज भी उन पलों के इस्मरण मातृ से अभिभूत हो उठता हूँ.
आज बाबा कि भूमि शिरडी करोरों भक्तों के आकर्षण का केन्द्र है.भिखारी बने भक्त कुछ न कुछ मांगने साई नाथ के द्वार जा पहुँचते हैं.और पाते हैं अपने मॅन कि मुराद .महासमाधि लेने के पूर्व अपने व्याकुल भक्तों से कहा भी था-इस्थूल शरीर छोड़ने के बाद भी में सक्रिय रहूँगा.जिस किसी के चरण भी शिरडी कि पवित्र भूमि पर पड़ेंगे,उसके कष्ट दूर हो जायेंगे. ‘तुम मुझे देखो में तुम्हे देख रहा हूँ’.
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