Tuesday, May 6, 2008

शिरडी ! रोमांच का अनुभव


आज से पचीस वर्ष पूर्व १९८२ का जनवरी माह मैंने भी साई नाथ कि पवित्र भूमि शिरडी कि यात्रा कि थी. मेरे साथ थे 'मदुरा कि मीनाक्षी’ उपन्यास के लेखक शत्रुघ्न लाल शुक्ल.शिरडी कि पावन भूमि का वो स्पर्श मुझे आज भी रोमांचित करता है.
शिरडी में हमने एक रात बिताई.लालसा थी प्रातः होने वाले समाधि स्नान और अभिषेक में शामिल होने कि.सारी रात एक अजीब प्रसन्नता के अनुभव ने गहरी नींद को भी दूर ही रखा.बाबा का सानिध्य पाने के लिए,नित्य कर्मों से मुक्त हो समय पूर्व ही हम दोनों मूर्ति व समाधि स्थल पर जा पहुंचे.समय आया,द्वार खुले और हम कछ में थे.दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, और मैं साई नाथ के अलावा कुछ और नही देख पा रहा था,न महसूस कर पा रहा था.समाधि स्नान प्रारम्भ हुआ और मैंने भी बाबा कि समाधिस्नान कराने के आनंद से अपने आप को अभिभूत होते पाया.प्रतीत हो रहा था,कि सैन्नाथ का साचत सानिध्य मुझे अपुवा उर्जा और आशीर्वाद से सराबोर कर रहा है.मुझे बाबा कि मूर्ति का स्वयं पूजन-अर्चन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ,जो आज आतंकवादी गतिविधियों और बढ़ती भीड़ के कारण रोक दिया गया है.सच में आज भी उन पलों के इस्मरण मातृ से अभिभूत हो उठता हूँ.
आज बाबा कि भूमि शिरडी करोरों भक्तों के आकर्षण का केन्द्र है.भिखारी बने भक्त कुछ न कुछ मांगने साई नाथ के द्वार जा पहुँचते हैं.और पाते हैं अपने मॅन कि मुराद .महासमाधि लेने के पूर्व अपने व्याकुल भक्तों से कहा भी था-इस्थूल शरीर छोड़ने के बाद भी में सक्रिय रहूँगा.जिस किसी के चरण भी शिरडी कि पवित्र भूमि पर पड़ेंगे,उसके कष्ट दूर हो जायेंगे. ‘तुम मुझे देखो में तुम्हे देख रहा हूँ’.

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