Monday, March 30, 2009

चाहिए अपराधी -मुक्त संसद

कारों के काफिले, उनकी खिड़कियों से झाकती बंदूकें,कारों मैं बैठे तथाकथित नेता और उनके गुर्गे,क्या यही है देश के जनप्रतिनिधियों की पहचान?


सभी राजनीतिक दलों ने मंझे हुए गुंडों और माफिया को इस संसदीय चुनाओ मैं भी मैदान मैं उतरा है। शायद अब इनके बिना संसद अधूरी ही लगती है। शायद अब नेता का पर्याय गुंडा,माफिया,आतंकी,सेंधमार, लफंगा हो गया है। शरीफ आदमी को अब कोई जिताऊ उम्मीदवार मानने को राजी ही नही होता। धनबली और बाहुबली ही neta माने जाने लगे हैं। आख़िर क्यूँ?


तो फिर, क्या मान लिया जाए कुछ दिनों बाद भारत की संसद शतप्रतिशत अपराधियों से भरपूर संसद होगी? क्या हम इसके लिए तैयार हैं? हम अपने और अपने आने वाली पीढियों को इन अपराधियों के हाथों बंधक हो जाने देंगे? इन सब बातों पर गंभीर चिंतन जरूरी है।


आपके हाथों मैं पहली शक्ति है 'वोट' की और दूसरी 'चोट' की। आइये हम सर्वप्रथम अपनी वोट शक्ति का प्रयोग करके अपराधी मुक्त संसद निर्माण का प्रयास करते हैं। यदि यह न हो सका तो हम सबको संगठित 'चोट' करने के लिए भी तैयार रहना ही होगा।

Thursday, July 17, 2008

शत्रुघ्न लाल शुक्ल

साठ के दशक में unesko से समानित लेखक,उपन्यासकार शत्रुघ्न लाल शुक्ल की यादें आज मुझे कुछ विचलित कर देती हैं। सुनने की शक्ति से पूरी तरह शून्य शत्रुघ्न लाल शुक्ल ने अपने जीवन काल में लगभग १२६ पुस्तकें लिखीं। जो vibhinn प्रकाशकों से प्रकाशित हैं। राजनीतिक जोड़तोड़ से दूरियां और तिकरम तंत्र का ज्ञान न होने के कारण मीडिया ने भी उन्हें कोई महत्व नही दिया। धन और यश ने भी उनसे दूरियां बनाए रखीं। हाँ लोगों ने उनका जम कर दोहन और शोषण किया। कानपूर के एक तथाकथित ज्योतिष महापुरुष का सारा साहित्य तो उन्ही की लेखनी का प्रसाद है। इस समस्त लेखन के लिए उन्हें विशेस प्रलोभन दिए गए। अर्थहीनता सबसे बड़ा abhishhap है ही। दिए गए प्रलोभन से मुकर गया और एक बार फिर सरस्वती पुत्र के साथ वही हुआ जो शायद उसकी नियति थी । मुझसे उन्होंने बड़े दुःख से सारी कथा sunaayi और जीवन पर पछताते रहे। बाद में उन्होंने खीज में आकर स्वयं भी ज्योतिष और तंत्र- मंत्र साहित्य की रचना की जो उनके नाम से प्रकाशित भी हुआ शत्रुघ्न लाल शुक्ला जैसे कलम के जादूगर ने 'आज' और जागरण प्रकाशन में प्रूफ्रेअदर के रूप मैं सेवा करते हुए एक लंबा समय कानपुर में बिताया । मेरे कार्यालय में उनका आना और चाय की चुस्कियों के साथ तथाकथित महामनाओं को कोडवर्ड में गालियाँ देना आज भी याद है। नियति का खेल भी विचित्र है। शत्रुघ्न लाल शुक्ल की मौत भी सामान्य ढंग से नहीं हुयी । उन्नो स्टेशन पार कर रेल लाइन के किनारे-किनारे जाते हुए रेल दुर्घटना मैं २२ अगस्त १९८८ को उनका शरीरांत हो गया। एक सरस्वती पुत्र को जीते जी हमने क्या दिया,यह चिंतन का विषय हैं । अब ख़बर यह भी है,की शत्रुघ्न लाल शुक्ल के साहित्य पर शोध कर किसी ने पी अच् दी भी ले ली है। यही है दुनिया !

जीते जी हम जिन्हें पानी नही देते, मरने के बाद बुतों पर दिए jalaate हैं।



Sunday, June 29, 2008

बिकाऊ है !

बिकाऊ है !
सब कुछ बिकाऊ है
धर्म,ईमान,इंसान
शैतान,भी बिकाऊ है
खरीदार चाहिए-
भगवान् भी बिकाऊ है
खुला बाज़ार देखो
योग बिकता,भोग बिकता
रोग भी बिकाऊ है
संत बिकते,श्रीमंत बिकते
नेता बिकाऊ,अभिनेता बिकाऊ
hunde bikau , गुण्डे बिकाऊ

बिकाऊ कलम-
ओढ़ बेशर्मी,शर्म भी बिकाऊ है
खरीद पाओ तो खरीदो
न्याय की तराजू, हतोड़ा
कुर्सी भी बिकाऊ है
मेरे देश!
मैं डर रहा हूँ
तुम्हारी अस्मिता को
न कोई बेच डाले
भले मुझे बेच ले-
मैं तो,
पहले से ही बिकाऊ हूँ!

Friday, June 13, 2008

मीडिया उद्योग बनाम मीडियाकर्मी

एक आन्दोलन कही जाने वाली पत्रकारिता एक विशुद्ध व्यवसाय का रूप ले चुकी है। अब यह छेत्र मीडिया के नाम से जाना जाता है,प्रिंट मीडिया,इलेक्ट्रोनिक मीडिया। इस व्यवसाय मे सलग्न घराने अब बड़े औद्योगिक घरानों कि तरह अपने साम्राज्य को हर सेक्टर में बढ़ाने का प्रयास करते देखे जा सकते हैं। अखबार छापने वाला एक घराना आज पब्लिकस्कूल ,management स्कूल ,शुगर फैक्ट्री,जैसे उद्योगों के साथ ही बदलती राजनीति का खिलाड़ी भी हो गया है। बुरा भी क्या है? प्रगति और समृधि पर सबका अधिकार जो है।

लकिन समृधि पर सबका अधिकार वाली बात मीडिया से जुड़े निचले तबके पर फिट नहीं बैठती .अखबार का एक संवाददाता ,मेज पर कलम घिसने वाले सम्पादक,सह सम्पादक,इलेक्ट्रोनिक मीडिया में इसी वर्ग के कर्मचारी अच्छी जीवन शैली जीवन जीने योग्य धन भी नही पाते। कई तो सुंदर भविष्य के स्वप्न में खोये मुफ्त ही खून सुखाते नजर आते हैं। शायद कभी तो दिन बहुरेंगे । १८ वर्षों से एक अखबार में कलम घिसने वाले वरिष्ठ पत्रकार से जब मैंने उसके वेतन के बारे में पूछा ,तो मैं भी अवाक रह गया । उसे आज भी लगभग १८ हज़ार का वेतन मिल रहा है। क्या आज कि परिस्तिथियों में यह नाकाफी नही है। दुनिया में होने वाले अन्यायों के ख़िलाफ़ आवाज बुलंद करने वाली पत्रकार बिरादरी भी न जाने क्यों आवाज उठाने में अपने को बेबस पाती है? सम्भव है उनकी कुछ मजबूरियां हों ।

में पिछले ३५ वर्षों से पत्रकारों के सम्पर्क में रहा हूँ। में स्वयं भी एक पत्रिका का सम्पादक रहा हूँ। कलम घिसने वाले इस श्रमजीवी -पत्रकार वर्ग के दर्द को मैंने बहुत करीब से महसूस किया है। लेकिन शायद मैं भी मजबूर ही रहा हूँ,कर कुछ नही सका.एक दर्द को अपनी कलम से रेखांकित करने का मेरा यह एक प्रयास है। पत्रकारों को अपने अधिकारों के लिए मुखर देखने कि इच्छा का अंग है यह ब्लॉग .शायद कुछ परिवर्तन हो सके। नही तो मैं बस यही कहूँगा सब भाग्य का खेल है। में ज्योतिषी हूँ, तो मेरे लिए यह स्वीकार करना सबसे सुगम ,सुरक्षित मार्ग है। लकिन एक जागृत समाज दर्द कि सच्चाई से मुह नही मोड़ सकता।

Monday, May 19, 2008

जयंती या वोट इंजीनियरिंग

सरकारी विभागों कि कार्य गति और कारगुजारियाँ किसी से छिपी नहीं हैं। कुर्सी पर बैठा बाबू हो या अधिकारी अपने विशेष हित के बगैर छुट्टी मनाता ही नजर आता है। कुर्सी पर पहुँचते ही पानी और फिर चाय, फिर थोडी राजनीति और थोड़े ठहाके ...फिर शाम कि चाय और फिर छुट्टी.बीच में यदि कुछ लोगों पर मेहरबानियाँ हुईं भी,टू उसकी पूरी कीमत जेब में।
इस सबके बावजूद हर रोज एक नए सरकार घोषित अवकाश से रूबरू होना हतप्रद करता है। कुछ दिन पहले माननीय काशीराम जयंती का अवकाश और अब 'वोट इंजीनियरिंग' के अंतर्गत भगवान् परशुराम जयंती का अवकाश भी उत्तर प्रदेश सरकार कि नई पहल है।महापुरुषों कि जयंती मनाने के लिए क्या हम कुछ नया नहींसोच सकते? उस विशेसदिन हम सच्चाई के साथ महापुरुष के कुछ गुरों को स्वयं में धारण करने का प्रयास नहीं कर सकते? सरकारी कर्मचारियों कि कार्य संस्कृति को बदलने के प्रयास करना भी महापुरुषों कि जयंती मनाने का एक तरीका हो सकता है। हर महापुरुष कि जयंती पर सरकारी अवकाश घोषित कर आराम तलबी को बढावा देने कि संस्कृति बदलने कि आवश्यकता है।

बदलने को देश ,कुछ हमें भी बदलना चाहिये।

शाबाश! गुलाबी गैंग

बुन्देलखण्ड में असहाय महिलाओं और मजलूमों के लिए सहारा बनने वाले गुलाबी गैंग और उसकी मुखिया संपत पाल को ‘शाबाश’ कहने का मन हो रहा है.सम्पतपाल और उनके गुलाबी गैंग को नक्सलवादियों कि पंक्ति में खड़ा करने वालों कि bउधि पर तरस भी आता है.लगता है भ्रष्ट प्रशाशन को अपनी दुकान बंद होने का खतरा सताने लगा है.
उस राज्य का हिस्सा है,जिसकी मुखिया एक ऐसी महिला है,जो कमजोरों कि मसीहा होने का दम भरती है.और मजलूमों को न्याय दिलाने वाले हाथों को रोकने का प्रयास करने वाला अधिकारी भी उन्ही के राज्य का एक वरिष्ठ अधिकारी है.क्या नारों और जमीनी हकीकत में कोई tआळ मेल नहीं है?क्या सामजिक न्याय का नारा केवल मायाजाल है?
न्याय मांगने को उठे हाँथ आक्रामक मुठियाँ भी बन सकते हैं.गुलाबी गैंग औए उसकी मुखिया को समर्थन मिलना ही चाहिये. शासन और प्रशाशन अपनी मानसिकता को बदले,यही समय का ताकाजा है.

उठे हाँथ घूँसा न बन जाए
नियत अपनी बदल डालो.

Tuesday, May 6, 2008

शिरडी ! रोमांच का अनुभव


आज से पचीस वर्ष पूर्व १९८२ का जनवरी माह मैंने भी साई नाथ कि पवित्र भूमि शिरडी कि यात्रा कि थी. मेरे साथ थे 'मदुरा कि मीनाक्षी’ उपन्यास के लेखक शत्रुघ्न लाल शुक्ल.शिरडी कि पावन भूमि का वो स्पर्श मुझे आज भी रोमांचित करता है.
शिरडी में हमने एक रात बिताई.लालसा थी प्रातः होने वाले समाधि स्नान और अभिषेक में शामिल होने कि.सारी रात एक अजीब प्रसन्नता के अनुभव ने गहरी नींद को भी दूर ही रखा.बाबा का सानिध्य पाने के लिए,नित्य कर्मों से मुक्त हो समय पूर्व ही हम दोनों मूर्ति व समाधि स्थल पर जा पहुंचे.समय आया,द्वार खुले और हम कछ में थे.दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, और मैं साई नाथ के अलावा कुछ और नही देख पा रहा था,न महसूस कर पा रहा था.समाधि स्नान प्रारम्भ हुआ और मैंने भी बाबा कि समाधिस्नान कराने के आनंद से अपने आप को अभिभूत होते पाया.प्रतीत हो रहा था,कि सैन्नाथ का साचत सानिध्य मुझे अपुवा उर्जा और आशीर्वाद से सराबोर कर रहा है.मुझे बाबा कि मूर्ति का स्वयं पूजन-अर्चन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ,जो आज आतंकवादी गतिविधियों और बढ़ती भीड़ के कारण रोक दिया गया है.सच में आज भी उन पलों के इस्मरण मातृ से अभिभूत हो उठता हूँ.
आज बाबा कि भूमि शिरडी करोरों भक्तों के आकर्षण का केन्द्र है.भिखारी बने भक्त कुछ न कुछ मांगने साई नाथ के द्वार जा पहुँचते हैं.और पाते हैं अपने मॅन कि मुराद .महासमाधि लेने के पूर्व अपने व्याकुल भक्तों से कहा भी था-इस्थूल शरीर छोड़ने के बाद भी में सक्रिय रहूँगा.जिस किसी के चरण भी शिरडी कि पवित्र भूमि पर पड़ेंगे,उसके कष्ट दूर हो जायेंगे. ‘तुम मुझे देखो में तुम्हे देख रहा हूँ’.